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ऋषि पंचमी वृत ,उपासना ,व कथा ।

भाद्र पद मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋषि पंचमी का व्रत किया जाता है ।उस दिन ज्ञान से या अज्ञान से रजस्वला अवस्था में किया हुआ स्पर्श का दोष दूर करने के लिए और अरुंधती सहित कश्यप आदि सातौ ऋषियों को प्रसन्न करने के लिए ,, में सप्त ऋषियों का पूजन करूंगी ऐसा संकल्प करके ,पूजा करने का पौराणिक आदेश है ।

।इसके कारण यह व्रत सिर्फ स्त्रियों के लिए ही है ।यह एक भ्रांति है ,ऋषि तो स्त्री पुरुष सभी के हैं ,हम ऋषि मुनियों की ही संतान हैं।ऋषियों ने संस्कार व अपनी संस्कृति द्वारा ही हमें सफल जीवन जीने की शिक्षा दी है ।

इस लिए हम सभी को भाव पूर्ण व श्रृद्धा पुवर्क ऋषियों को याद करना चाहिए , हृदय के विशुद्ध भाव से उनका पूजन करना चाहिए ।

नमोस्तु ऋषिवृंदेभ्यो देवर्षिभ्यो नमो नमः,
सर्व पाप हरेभ्यो ही वेदविद्भ्यो नमो नमः ।

ऋषि समुदाय जो देवर्षि हैं ,सर्व पाप को हरने वाले और वेद को जानने वाले हैं ,उन्हें में बार – बार नमस्कार करता हूं । करती हूं ।

ऐसी प्रार्थना के साथ अपने ऋषि मुनियों को नमन
करना चाहिए ।

कश्यप ,अत्रि ,भारद्वाज ,विश्वामित्र,गौतम ,जमदग्नि वसिष्ठ ,, ये सात ऋषि हैं ।

ऐसा मन में विचार करें कि मैने भक्ति से इन सातों ऋषियों की पूंजा अर्चना की है ,,ज्ञान व अज्ञान से ,किए मेरे पापों को ,ऋषि गण दूर करें ।

ऋषि मानव के सच्चे आत्मीय जन हैं,क्योंकि राग द्वेष के वश होकर वे किसी को झूठी सलाह नहीं देते।
ऋषि की बुद्धि ईश्वर को समर्पित होती है ।ऋषि स्वयं को मंत्र कर्ता नहीं मंत्र दृष्टा मानते हैं।

मानव बुद्धि से निर्मित विचार मानव को बदलने में समर्थ हो या न हों,परन्तु इन ऋषियों की बुद्धि में ईश कृपा स्फुरित विचार समग्र मानव को बदल सकते हैं
यह निर्विवाद सत्य है ।

उत्तर रामचरितम में भवभूती लिखते हैं।
लौकिकानाम हि साधुनामार्थम वागनुवृतते
ऋशीणाम पुनराध्यानाम वाचम अर्थों sनुधावती ।

सामान्य लौकिक साधु और सज्जन अर्थ का विचार कर के वाणी उच्चारते हैं ।परन्तु आद्य ऋषियों की वाणी के पीछे तो अर्थ स्वयं दौड़ कर आता है ।
ऋषियों की वाणी अर्थ पूर्ण ही है ,,जिसमें जीवन का सार छुपा है । ऐसी वाणी है हमारे ऋषियों की ।जिसे सुनने मात्र से मन के विकार दूर हो जाते हैं ।

ऐसे महा पुरुषों की वाणी पर सवार होने पर मानो अर्थ को अपना सौभाग्य लगता है ।

ऋषियों का मानव समाज पर अनतः करण पूर्वक
प्रेम होता है । ऋषियों को पूरा संसार भगवान का घर लगता है । जैसे मां अपने बच्चे को स्वच्छ व सुंदर रखती है वैसे ही ऋषि सारे संसार को स्वच्छ और सुंदर रखना चाहते हैं ।

और अपने स्वामी भगवान के घर को विशुद्ध रखने का अहरनिश प्रयत्न करते रहते हैं ।उनकी समाज सेवा व जगत सुधार ,,,भक्ति के उदर से जनम लेते हैं । जगत के पतन से ऋषियों को व्यथा होती है। उनका अंतः करण रो उठता है ।परन्तु इस रुदन का कारण स्वार्थ न होने के कारण वह विषाद योग माना जाता है ।

ऐसे महा पुरुषों के विषाद योग से ही , हमें हमारी उत्तम ग्रंथ सम्पदा प्राप्त हुई है । क्रोंच मिथुन में से शिकारी द्वारा एक की हत्या हो ते ही व्यथित हृदय महर्षि बाल्मीकि के मुख से शाप मुक्त वाणी निकली ।

“मा निषाद प्रतिष्ठा त्वम अगमह शाश्वती समा ।
यत क्रोंच मिथुनादेकम अवधी काम मोहितम ।”

यह आर्श वाणी अमर हुई और उसी अनुष्टुप
छनद धारा में , हमें रामायण जैसा चिंतन शील काब्य
प्राप्त हुआ ।

पुत्र विरह के शोक ने महर्षि व्यास को व्यथित किया और उसी से भागवत पुराण का सृजन हुआ । उसी तरह कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के हृदय में पैदा हुआ
विषाद गीता का कारण बना दुख ,व्यथा पुन्यप्रकोप
चिंता ,वैर का कारण न बनकर ,चिंतनशील बने तो उस से महानता का सृजन कर सकते हैं ।

आज विचार सभी को चाहिए पर मनोकामना पूर्ति के लिए।,और प्रति पक्षी के खंडन के लिए ।इसलिए विचार गुलाम बन गए हैं । विचार ज्ञान साधन बने और कामनाएं साध्य बनी हों तब ही समाज के लिए आप कुछ कर पाएंगे ।

चिंतनशीलता से ब्रह्म ऋषि का पद मिलता ।अपितु वह स्वयं के लिए न होकर देश दुनियां के लिए हो ।
ऐसे हैं हमारे ऋषि ,,,जिन्होंने तप की अग्नि में अपने तन को तपा कर यह नाम पाया। ” ब्रह्म ऋषि “

“ऋषि पंचमी व्रत कथा ।

एक ब्राह्मण व ब्राह्मणी पति पत्नी थे ,पत्नी से रजस्वला के समय स्पर्श के पाप के कारण ,,दोनों पति पत्नियों को श्वान का जन्म मिला ।सौभाग्य वश उनका यह जनम भी अपने उसी घर के आस पास ही मिला ।जहां उनका पूर्व जनम का घर था ।

आपने देखा होगा , कि जो सुख सुविधा इंसानों को नहीं मिल पाती ,वह सुख सुविधा कुत्तों को मिल जाती है ।बंगलों में ए सी में रहना गाड़ियों में घूमना ,,इसका अर्थ यही है कि वैसे तो वह पूर्व जनम में बहुत अच्छे इंसान थे लेकिन कोई ऐसी गलती हो गई उनसे जिससे उन्हें कुत्ते का जन्म मिला है ।

एक दिन ब्राह्मण ब्राह्मणी कुत्ता कुतिया के रूप में अपने बेटे के घर के दरवाजे पर ही बैठे थे ।

ये उनके पिछले जन्म में किए हुए अच्छे कर्मो का फल ही था जो उन्हें अपने पिछले जन्म के बारे में सब याद था ।

दोनों कुत्ता कुतिया आपस में बात कर रहे थे । कि बेटे ने आज ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया है और देखो खीर भी बनाई है ।तब ही कुत्ते ने देखा छप्पर में से एक सांप निकल कर खीर में गिर गया है ।

कुत्ते ने सोचा मेरे बेटे ने इतनी श्रृद्धा से मेरे श्राद्ध के दिन
ब्राह्मण भोजन के लिए खीर बनाई है ,,अगर इस खीर को किसी ब्राहमण ने खा लिया और उसे कुछ हो गया तो !!? मेरे बेटे को पाप लगेगा ।

कुत्ते ने जाकर उस खीर को जूठा कर दिया ,,उस खीर को कुत्ते द्वारा जूठा करता हुआ , उसके बेटे ने ही देख लिया ।बेटे ने मोटा सा डंडा लेकर उस कुत्ते की पिटाई कर दी ।

कुत्ता कुतिया दोनों चीखते चिल्लाते वहां से चले गए ।
बेटा बहुत दुखी हुआ ।तो उसकी पत्नी ने कहा क्यूं दुखी हो रहे हो ,,शहर के बाहर एक ऋषि की कुटिया है
उनसे जाकर पूछो कि अब पिताजी का श्राद्ध कैसे करें ।
बेटा ,, पत्नी की बात मान कर , उन ऋषि के पास गया और जाकर वहां अपनी सारी बात बता दी ।

उस बेटे ने तो बस कुत्ते को मार के भगाया था । उसे तो पता ही नहीं था कि उन्होंने खीर क्यूं जूठी की ।

ऋषि जी ने बेटे की सारी बात सुन कर ध्यान लगाया ।
ऋषि मुनि तो त्रिकाल दर्शी होते हैं उन्होंने देख लिया कि उस खीर में सांप गिर गया था ।

ऋषि जी ने उस बेटे से कहा ,,जिस कुत्ते को तू अभी मार कर आया है वही तेरे पिता हैं ,और जो उनके साथ कुतिया बैठी रहती है वह तेरी माता है।

बेटे को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ ।
बेटे ने मुनि जी से पूछा इस पाप का प्रायश्चित कैसे हो ,,और किस अपराध से उन्हें कुत्ते और कुतिया की योनि में जन्म मिला है ।मुझे सब कुछ जानना है ।

तब ऋषि ने बताया कि तुम्हारी माता से रजस्वला के समय में स्पर्श दोष के कारण उन्हें ये योनि मिली है ।और सभी कर्म उनके अच्छे थे जिससे तुम संस्कारी बेटे उन्हें प्राप्त हुए ।

फिर बेटे ने पूछा मेरे माता पिता का उद्धार कैसे हो ।
तो ऋषि ने कहा कि तुम गया जी में जाकर अपने माता पिता के पिंड दान करो ,,जिसके फल स्वरूप तुम्हारे माता पिता को इस योंनि से छुटकारा मिल जाएगा ।

बेटे ने गया जी में जाकर पिंड दान ब्राह्मण भोजन सब कराया ।जब वह लौटकर आया तो उसे पता चला कि कुत्ता और कुतिया दोनों की मृत्यु हो चुकी है । वह इस श्वान के जनम से मुक्त हो चुके थे ।

बेटे ने विधि विधान से उनका क्रिया कर्म किया और उन्हें इस योनि से मुक्ति मिली ।

ऐसा है हमारे देश में ऋषि मुनियों का दर्शन जो स्वयं तो पाप कर्म से विरत रहते ही हैं और समाज को भी सच्चिदानन्द के मार्ग पर अग्रसर करते हैं ।

जय हो सप्त ऋषियों की ।

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